उस पखवाड़े (2 फरवरी 1996) को कष्ष्णानदी के तट पर विजयवाड़ा नगर के प्रांगण से सिंहगर्जना होने वाली थी। नारे लगने वाले थेः ‘कांगे्रस को हटाओ: मौकेबाजों को हराओ।’ अर्थात तेलुगु बिड्डा (सन्तान) नरसिंह राव का बिस्तर गोल करो और धोखेबाज (दामाद) चन्द्रबाबू नायुडू को सत्ता से हकालो। मगर वह सिंह ही अब चिरनिद्रा में सो गया। नन्दमूरि तारक रामाराव ने कष्ष्णा नदी तट चुना था क्यांेकि सम्राट षालिवाहन से लेकर आंध्र केसरी टी. प्रकाषम् तक के इतिहास का यह पानी तरल साक्षी रहा। विजयवाड़ा इसलिए कि आंध्र की यह राजनीतिक राजधानी है, हैदराबाद तो भौगोलिक है। रामाराव ने लोकसभा उपचुनाव (1991) में नरसिंह राव का समर्थन किया था क्यांेकि सम्राट पुलकेषिन द्वितीय से कई सदियों बाद ही कोई दक्षिण भारत का नायक राष्ट्रनायक बना है। तेलुगु गोप्मतनमु (गौरव) के हित में रामाराव के समर्थन के कारण नरसिंह राव नान्द्याल संसदीय क्षेत्र से जितने मतों से विजयी हुए वह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अपराजेय कीर्तिमान है। लेकिन षीध्र मोहभंग होते ही रामाराव ने फिर रणभेरी बजायी और गत राज्य विधान सभा निर्वाचन में नरसिंह राव के लोकसभाई क्षेत्र की सारी विधान सभा सीटें कांग्रेस ने गंवा दीं। रामाराव को लगा उन्होंने प्रायष्चित कर लिया। अगले अप्रैल को ग्यारहवीं लोक सभा चुनाव में उनका प्रण था कि राष्ट्रीय भूल का सुधार हो जाये, ताकि यह कहने को न रहे कि हिन्दी-भाषी उत्तर की तुलना में दक्षिण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री खरे नहीं निकले।
बस ऐसी ही भावना रही थी कि बारह वर्श पूर्व मुख्यमंत्री बनते ही रामाराव ने हिन्दी बोलनी सीख ली। उन्हें भविश्यवाणी मिली थी कि इस बार राश्ट्रनायक दक्षिण का होगा। विजयवाड़ा में इन्दिरा गांधी तब दूरदर्षन के राष्ट्रीय ट्रांसमीटर का उद्घाटन करने आयी थीं। हिन्दी भाशियों ने इन्दिरा गांधी का दूरदर्षन पर भाशण अंग्रेजी में सुना, रामाराव षुद्ध हिन्दी में बोले।
उसी समय की एक बात है जिसकी चर्चा हुई, फिर वह आई गयी सी हो गयी। टाइम्स आॅफ इण्डिया के हैदराबाद संवाददाता के रूप में मैने एक रपट भेजी थी। वह घटना आठवीं लोकसभा (1984) में बड़ी कारगर होती , अगर हो जाती तो, मगर घटी ही नहीं। बस इतिहास का अगर-मगर बनकर वह रह गयी। संदर्भ महत्वपूर्ण इसलिए था कि आठवीं लोकसभा में विपक्ष के लगभग सारे कर्णधार धूल चाट गये थे। इन्दिरा गांधी के बलिदान के नाम राजीव गांधी को जितनी सीटें मिलीं वह उनके नाना या अम्मा को भी नहीं मिली थी। कुल 542 में 415 सीटे जीती थीं राजीव ने। जवाहरलाल नेहरू का अधिकतम रहा था 371 सीटें 1957 में, और इन्दिरा गांधी का गरीबी हटाओं के नारे में 342 रहा 1971 में तथा 353 रहा 1980 में। तब प्याज के बढ़ते दाम तथा ‘वोट उनकों दो जो सरकार चला सकें’ का नारा दिया गया था। खुद इमर्जेसी के जुल्मों के बाद 1977 में जनता पार्टी 295 सीटंे ही हासिल कर पायी थी। रामाराव 1984 के लोक सभा चुनाव के समय मुख्यमंत्री का डेढ़ वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुके थे। उन्हीं दिनों एक सप्ताह भर इन्दिरा गांधी का षव भी घर-घर में दूरदर्षन के पर्दे पर दिखाया जा रहा था। आमजन की सहानुभुति राजीव गांधी के साथ थी मगर आंद्द्र प्रदेष में रामाराव का करिष्मा बरकरार रहा। कांग्रेस जिस राज्य से 42 मे से 41 सीटें जीतती रही थी, केवल छ ही सीटें ही जीत पायी। न राजीव के प्रति हमदर्दी रिझा सकी और न इन्दिरा गांधी का षव उनकी पार्टी के लिए मतदाताओं को रिसा सका।
यह बात उसी दौर की है। राजीव गांधी के सलाहकारों ने एक बड़े गोपनीय तौर पर षकुनी वाला पासा फंेका। विपक्ष के जितने दिग्गज थे उन्हें राजनीतिक रूप से पराभूत करने का, अर्थात् पराजित करने का। अमिताभ बच्चन, माद्दवराव सिन्धिया आदि लोगों का ऐन वक्त पर बदले हुए लोकसभा क्षेत्रों से नामांकन दाखिल कराया गया। परिणाम में पूरे दस लोकसभाओं के इतिहास में आठवीं लोकसभा की चर्चा रहेगी कि विपक्ष क्लीव ही नहीं, नगण्य भी रहा। तभी अमुल डेयरी का विज्ञापन भी छपा था कि अमूल मक्खन के लिए ‘देयर ईज नो आपोजीषन इन दि हाउस’ (सदन में विरोध ही नहीं है)। द्विअर्थी विज्ञापन एक कडुवा सच था। कांगे्रस की अभूतपूर्व बढ़त को देष मंे अवरूद्ध करने हेतु और गैर-कांग्रेसवाद के लोहियावादी सपने को आगे बढ़ाने के लिए रामाराव ने एक प्रस्ताव रखा। तेलुगु देषम पार्टी के नेताओं को उसे मूर्त रूप देने का जिम्मा सौंपा। उन्होंने सुझाया था कि भारतीय जनता पार्टी के अव्वल नम्बर के नेता अटल बिहारी वाजपेयी हनमकोण्डा (वारेंगल) से, लोकदल के हेमवती नन्दन बहुगुणा मेदक से और जनता दल के जार्ज फर्नांडिज कर्नूल से लोकसभा का चुनाव लड़ें। तेलुगु देषम उनका समर्थन करेगी। मगर होना कुछ और ही था। आखिरी वक्त पर अपनी गुना वाली लोकसभा सीट छोड़कर माधवराव सिधिया ग्वालियर नगर से अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लड़े और भाजपा प्रत्याषी केवल 28 प्रतिषत वोट ही प्राप्त सका। उधर बम्बइया फिल्मी सितारे ने इलाहाबाद लोकसभा सीट पर 68 प्रतिषत वोट पाकर केवल 25 प्रतिषत वोट पाये बहुगुणा को पराजित किया। बेंगलूर (उत्तर से) जार्ज फर्नाडीज 41 प्रतिषत वोट पाकर भी रेल मंत्री जाफर षरीफ के मुकाबले हार गये।
अब देखिये रामाराव की उपलब्धि क्या रही। तब हनमकोण्डा से तत्कालीन गष्हमंत्री पी.वी. नरसिंह राव कांग्रेस के उम्मींदवार थे। वह पिछले दोनों आम चुनावों (1977 और 1980) में इसी सीट को जीत चुके थे। मगर इन्दिरा-बलिदान की आंधी के बावजूद नरसिंह राव जिले स्तर के एक भाजपाई कार्यकर्ता पी.जंगा रेड्डी से हार गये। केवल 25 प्रतिषत वोट ही पा सके (महाराष्ट्र के रामटेक से वह तब चुने गये और राजीव मंत्रिमण्डल में षामिल हुए।) मेदक लोकसभा सीट पर इन्दिरा गांधी ने एस. जयपाल रेड्डी को 67 प्रतिषत वोट पाकर 1980 में हराया था। बहुगुणा जी का जब जवाब नहीं आया तो रामाराव ने मेदक सीट पर आखिर दिन, बस नामांकन के कुछ मिनट पूर्व, एक मामूली से तेलुगु देषम कार्यकर्ता पी. माणिक रेड्डी को टिकट दिया। उसने 48.6 प्रतिषत वोट पाकर केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री और बाद में केरल के राज्यपाल पी. षिवषंकर को पराजित किया। कर्नूल से लड़े पूर्व मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री और पार्टी अनुषासन समिति के अध्यक्ष के. विजय भास्कर रेड्डी जो 1977 और 1980 में 75 प्रतिषत वोट पाकर जीते थे उन्हें 1984 मंे तेलुगु देषम पार्टी के अनजाने प्रत्याषी अय्यप्प रेड्डी ने 49.9 प्रतिषत वोट पाकर हराया। जार्ज फर्नांडिस तो इस अनजाने तेलुगु देषम उम्मींदवार से ज्यादा मषहूर थे। रामाराव की तब आकांक्षा थी कि राष्ट्रीय मोर्चा बने जो भारत को कांगे्रस से मुक्त करा पाये। उन्हीं के प्रयास से 1984 के प्रारम्भ में नयी दिल्ली के आंध्र भवन में गैर-कांग्रेसी नेताओं ने एक ढीले से, अनमने तौर पर मोर्चा बनाया। तब तक विष्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधी के सर्वाधिक अन्तरंग मंत्री थे। बाद में क्या हुआ, कैसे हुआ, यह सब जाना समझा इतिहास है।
मगर एक बात जरूर अखरती है। जिस नायक ने राष्ट्रीय मोर्चा की नींव बनायी मौत के समय उसी को उससे उपकष्त हुए लोगों ने धोखा दिया। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां जो केवल एक या तीन विधानसभा सीटे जीतती थीं, रामाराव की मदद से आंध्र प्रदेष विधानसभा में दहाई की संख्या के ऊपर गयीं और राज्यसभा तक में साझेदारी से अपना प्रतिनिधि भेज पायी। उसी भाकपा के नेता हरकिषन सिंह सुरजीत ने बयान दिया कि वे विजयवाड़ा की सिंहगर्जना सभा मेें षरीक नहीं होंगे। क्यो? उनकी पार्टी (दामाद) चन्द्रबाबू नायुडू की तेलुगु देषम पार्टी से जुड़ गयी है। दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी के इन्द्रजीत गुप्त ने इतनी निर्ममता नहीं दिखाया, वे खामोष थे।
इसी पार्टी के उत्तर प्रदेष के विधायक सरजू पाण्डेय ने एकबार (1983) उत्तर प्रदेश विधान परिषद की प्रेस लाबी में जानना चाहा था कि “नौ महीने में एक नचनिया वाली तेलुगु देशम पार्टी की सरकार कैसे बन गयी?” मैंने तब उन्हें बताया था कि बोल्षेविक क्रान्ति भी लेनिन ने मेंषेविक क्रान्ति के चन्द महीने ही बाद कर दी थी। परिवर्तन की लहर सितारों के इषारे से नहीं आती। उसे सच्चे नष्सिंह हर लाते है। और एन.टी. रामाराव थे वे सच्चे नष्सिंह!
K. Vikram Rao
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