तब तक देश पर आपातकाल थोपे एक साल गुजर चुका (1976) था। अर्थात् यह चैंतीस वर्ष पूर्व की बात है। हम कैदी लोग तिहाड़ जेल के सत्रह नम्बर वार्ड में बहस करते थे कि यदि इन्दिरा गांधी प्रधान मंत्री पद छोड़ देंती। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय मान कर रायबरेली से अपने रद्द किये गये पांचवीं लोकसभा (1971) के चुनाव पर सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर, प्रतीक्षा करतीं। किसी माकूल कांगे्रसी को खड़ाऊ प्रधान मंत्री बना देतीं जो वक्त पर उनके खातिर हट जाता। अपनी जनपक्षधर छवि को तब वे गहरा बना देतीं। इससे उनके दोस्त दंग और दुश्मन तंग हो जाते। फलस्वरूप नेहरू-गांधी परिवार का सत्तावाला सिलसिला अटूट बना रहता और फिर चैदह वर्षों तक सरकार से परिवार कटा-कटा नहीं रहता। इस कीर्तिमान को विश्व का कोई भी राजवंश तोड़ न पाता। हालांकि अब यह प्रश्न महज अकादमिक रह गया है। फिर भी इतिहासवेत्ताओं को पड़ताल करनी चाहिये। इस अगर-मगर के सवाल का उत्तर खोजना चाहिए, ताकि भविष्य में सावधानी बरती जा सके।
लेकिन इन प्रश्नों पर मेरी सुनिश्चित राय वैसी ही है जैसी 26 जून 1975 के दिन थी। इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री पद कभी भी नहीं छोड़तीं। उनके पैतृक संस्कार, उनकी निजी सोच, राजनीतिक प्रशिक्षण और कौटुम्बिक कार्यशैली ने इन्दिरा गांधी को इस लोकतांत्रिक चिन्तन तथा व्यवहार को अंगीकार करने के लिए कतई कायल नही बनाया था। भारतीय संविधान बनाने वाले महारथियों ने ही वे प्रावधान रचे थे जिनके तहत राष्ट्रपति बस एक हस्ताक्षर से सारी राजसत्ता को समेट कर किसी भी महात्वाकांक्षी और अधिनायकवादी प्रधानमंत्री को उपहार में दे सकता था। यही हुआ भी। कमजोर फखरुद्दीन अली अहमद ने आधी रात (25 जून 1975) को तन्द्रिल मुद्रा में इन्दिरा गांधी के प्रस्ताव को पलक झपकते अनुमोदित कर दिया। बाद में काबीना के गुलदस्तों ने उसे सामूहिक क्लीव स्वीकृति दे दी। इसीलिए तारीफ़ करनी चाहिए मोरारजी देसाई वाली जनता पार्टी सरकार की। उसने प्राथमिकता के तौर पर इन्दिरा गांधी। शासनवाला बयालीसवां संविधान संषोधन (मूलाधिकार खत्म करने वाला) रद्द कर दिया। चैवालीसवें संशोधन (9 मई 1978) द्वारा आपातकाल थोपने की शर्तों को इतना कठिन बना दिया कि इन्दिरा गांधी-फख़रुद्दीन अली अहमद वाली हरकत दुबारा कोई तानाशाह कर न सके। संविधान को मरोड़ना एडोल्फ हिटलर ने भी किया था। वाइमर संविधान को जर्मन राइच (संसद) में ‘‘ऐनेबलिंग एक्ट’’ (अधिकार प्रदान करनेवाले अधिनियम) को पारित कराकर नाजी पार्टी का शासन थोप दिया था। तब जर्मनी और हिटलर पर्याय बन गये थे। वही बात जो सत्तासीन कांगे्रस पार्टी के असमिया अध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने कही थी, ‘‘इन्दिरा ईज़ इण्डिया।’’
एक और मुद्दा हम लोगों की चर्चा में उभरता था। यदि 1975 वाली स्थिति जवाहरलाल नेहरू के समक्ष आ जाती तो वे कैसे निबटते ? कुछ बन्दीजन, जो अटल बिहारी वाजपेयी की सोच के प्रभाव में रहते थे, की राय थी कि नेहरू उदार थे अतः पद छोड़ देते। मेरा पूर्ण विश्वास था कि नेहरू 1975 वाली परिस्थिति में इन्दिरा गांधी से बेहतर करते। वे अपना एकाधिकार ही नहीं, सम्राटनुमा शासन देश पर लाद देते। आजादी के पूर्व ‘‘माडर्न रिव्यू’’ में नेहरू ने छद्म नाम से लेख लिखा था, कि सत्ता पाकर क्या नेहरू तानाशाह बन जायेंगे?“ यह एक शगूफा तब नेहरू ने छोड़ा था कि कांगे्रसी उनके बारे में कैसी आशंकायें रखते हैं। संविधान बनने के बाद लखनऊ के काफी हाउस में एक ने राममनोहर लोहिया से पूछा था कि ‘‘कौन अधिक शक्तिशाली है ? राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री ?’’ लोहिया का उत्तर था; ‘‘निर्भर करता है कि जवाहरलाल नेहरू किस पद पर आसीन रहते हैं।’’ इतिहास गवाह है कि अधिकार और सत्ता पाने के लिए नेहरू ने क्या नहीं किया। कांगे्रस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू के बाद गांधीजी की अस्वीकृति पर लाहौर अधिवेशन (1929) में जवाहरलाल खुद अध्यक्ष बन गये। त्रिपुरी अधिवेशन में निर्वाचित अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस को बापू की मदद से दरकिनार कर अपना वर्चस्व लौटा लिया। अपार पार्टी समर्थन के बावजूद सरदार वल्लभभाई पटेल को महात्मा गांधी के समर्थन से काटकर नेहरू खुद कांगे्रस अध्यक्ष और फिर प्रधान मंत्री बन बैठे। जब बेटी को चुनौती की आशंका बढ़ी तो कामराज योजना रचकर (1964) सारे प्रतिद्व़न्द्वियों को पदच्युत करा दिया। ठीक वही काम जो इन्दिरा गांधी ने 1984 में अपनी हत्या के चन्द महीनों पूर्व किया था। जब नारायणदत्त तिवारी तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री तथा पार्टी प्रमुख नामित किया। सिर्फ इसलिए कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को कोई अन्य चुनौती देनेवाला न रहे। प्रणव मुखर्जी राज्यसभा में ही आते रहे। कभी भी प्रत्यक्ष मतदान में नहीं जीते थें। वे कैसे प्रतिस्पर्धी बनते। ऐसे ही नेहरू-इन्दिरा स्टाइल में पण्डित अटल बिहारी बाजपेयी ने भी जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी मे ंकिया। जिस किसी से चुनौती की आशंका थी वाजेपयी जी ने उन्हें वनवास दिलवा दिया, जैसे पण्डित मौलीचन्द्र शर्मा, प्रोफेसर बलराज मधोक, डा. सुब्रमण्यम स्वामी और ताजा तरीन घटनाक्रम में लालचन्द किशिनचन्द आडवाणी हैं। भाजपा ने भी वहीं किया जो कांगे्रस ने किया था। जिस नेता को प्रधान मंत्री बनना चाहिए था उसे उपप्रधान मंत्री के पायदान पर ढकेल दिया।
आपातकाल के दौरान तथा गिरफ्तारी के पूर्व हमारे साथी इस विचार मंथन से भी गुजर चुके थे कि तानाशाह का वध कर दिया जाय। धार्मिक पुस्तकों में इसकी अनुमति है। प्रधानमंत्री पुष्यमित्र शंुग ने जालिम मगध मौर्य सम्राट ब्रहद्रत को मारकर जनवादी काम किया था। मगर इस मुद्दे पर मेरा तर्क साथियों ने विवेकपूर्ण ढंग से स्वीकार किया। तानाशाह के तिरोभूत होने मांत्र से लोकशाही नहीं लौट आती है। इन्दिरा गांधी जाती तो संजय गांधी बाट जोहता रहता। व्यवस्था तो वही रहती। लातिन अमरीकी राष्ट्रों में क्या होता आया है? सत्ता पर काविज होते ही क्रान्तिकारी शासक प्रतिक्रान्तिकारी बन जाता है और तानाशाह भी। अतः हमने तय यही किया कि सांकेतिक और सूचक वारदातों को अंजाम दिया जायेगा, ताकि गुप्तचर संस्थायें इन्दिरा गांधी को दहशत में डालती रहेंगी कि देश में जनविरोध मुखरित हो रहा है। इसलिए मतदान द्वारा ही उसे कम किया जा सकता है। तो निर्वाचन जल्दी करायें। बड़ौदा डाइनामाइट षड़यंत्र केस के हम सत्ताइस अभियुक्त – प्रथम जार्ज फर्नांडिस, द्वितीय मैं (के. विक्रम राव), फिर सांसद वीरेन शाह जो बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने, गांधीवादी प्रभुदास पटवारी जो तमिलनाडु के राज्यपाल बने, आदि पर सीबीआई यह आरोप लगा ही नहीं पाई कि हमारी क्रियाओं से कोई प्राणहानि हुई हो। हम अहिंसक थे।
हालांकि हमलोग जेल कभी भी नहीं जाना चाहते थे। हम तब भूमिगत अखबार निकालना, पोस्टर-पर्चे आदि भेजना, अन्य प्रदेशों के भूमिगत नेताओं को गुजरात में शरण देना आदि करते थे। चूंकि गुजरात में तब कांगे्रस को पराजित कर विधान सभा में जनता मोर्चा की सरकार बनी थी और मोरारजी देसाई के अनुयायी बाबूभाई पटेल मुख्यमंत्री थे तो गुजरात में मीसा अथवा अन्य काले कानून लागू नहीं थे। हालांकि यह सीमित प्रजाशाही बस साल भर तक चली। फिर गुजरात भी देश की मुख्य धारा (तानाशाही वाली) में आ गया।
बहुधा हम भूमिगत कार्यकर्ताओं को मलाल रहता था कि एक लाख के करीब लोग जेल चले गये। यदि वे भूमिगत रहते तो हमारा संघर्ष तीव्र होता। रिहा होने के बाद जनता पार्टी के नवनियुक्त अध्यक्ष चन्द्रशेखर से मैंने पूछा भी था कि जेल के बाहर रह कर वे संघर्ष चलाते। मगर उनका बेबसी भरा उत्तर था कि ‘‘जब सभी नेता कैद हो गये तो आन्दोलन कैसे चलाया जाता और फिर देश में विरोध मुखर था ही नहीं।’’ हमारे डाइनामाइट केस के साथियों द्वारा संघर्ष जब तेज हुआ तो कुछ कमजोर कड़िया टूट गईं। बड़ौदा में तब मै टाइम्स आॅफ इण्डिया का संवाददाता था और भूमिगत संघर्ष का केन्द्र मेरा आवास था। मगर प्रतिरोध की श्रृंखला टूट गई और पुलिस ने छापा मारा तथा मैं गिरफ्तार कर लिया गया। हमारा खेल खत्म हो गया। कई पत्रकार साथियों ने मुझसे पूछा कि डाइनामाइट के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं था। बहस को छोटा करने की मंशा से मैं यही जवाब देता कि सेन्ट्रल एसेम्ब्ली में बम फेंक कर भगत सिंह ने बहरे राष्ट्र को सुनाना चाहा था। डाइनामाइट की गूंज से गूंगे राष्ट्र को हमलोग वाणी देना चाहते थे। हम राजनेता तो थे नहीं कि सत्याग्रह करते और जेल में बैठ जाते। श्रमजीवी पत्रकार थे अतः कुछ तो कारगर कदम लेकर विरोध करना था।
गिरफ्तार होने के पूर्व एक खास जिम्मेदारी मैंने निभाई थी। महाराष्ट्र-गुजरात सीमा पर भूमिगत नेताओं को पिकअप करना, अपनी कार में बैठाकर अहमदाबाद लाना। एक दिन एक व्यक्ति को लाने का जिम्मा था। तब हम सबका नियम था कि नाम नहीं पूछा जाएगा। क्योंकि पुलिस के दबाव में सूचनायें गुप्त न रह पातीं। वह व्यक्ति मुझे परिचित लगा। बुश शर्ट, पैन्ट और काले बालों से पहचानने में देर हुई। फिर याद आया कि अपने विश्वविद्यालय के दिनों में पानदरीबा चैरस्ते पर बने भवन की पहली मंजिल पर भारतीय जनसंघ के प्रादेशिक कार्यालय में मिला करता था। याद आया वे नानाजी देशमुख थे। मगर कर्पूरी ठाकुर को पहचानने में देर नहीं लगी। वहीं गूंजती आवाज़, वही आकर्षक आंखें। सिख वेश में जार्ज फर्नांडिस का तो मैं ड्राइवर ही बन गया था। एक बार सूरत शहर के पास पेट्रोल भराने गया तो चाय की तलब लगी। जार्ज भी गाड़ी से बाहर उतरें। वहीं एक और सिख मिल गया और जार्ज से पंजाबी में बतियाने लगा। इस कन्नड़भाषी ईसाई को बड़ी कठिनाई से साड्डा, तुस्सी और गल शब्द रटाये थे। सत्श्री अकाल सिखाया था। इसके पहले कि असली सिख नकली सिख को पकड़ लेता मैं जार्ज को गाड़ी पर लाद कर फुर्र हो गया।
आज पैंतीस वर्ष पूर्व की कुछ घटनायें दिमाग में धूमकर आ जाती हैं। खासकर बड़ौदा जेल वाली। एक रिपोर्टर ने अदालती पेशी पर पूछा कि कौन सी चीज याद आती है और किस की कमी अखरती है। मैंने जवाब दिया कि जेल में टेलिफोन की घंटी नहीं सुनाई पड़ती, जो बहुत कचोटती है। अखबार भी नहीं मिलते। मगर यह कमी धीरे-धीरे दूर हो गई, जब एक युवक बड़ौदा जेल में रोज अखबारों का बण्डल दे जाता था, और जेलर साहब मेहरबान हो जाते। बाद में पता चला कि यह फुर्तीला युवक एक स्वयं सेवक था जिसका नाम है नरेन्द्र दामोदर मोदी, अघुना गुजरात का भाजपाई मुख्यमंत्री।
एक अन्य याद है मेरे तनहा सैल की, जहां केवल फांसी की सजा पानेवाले ही रखे जाते थे। यहां मेरे पहले रहे कैदी ने दीवाल पर लिखा था कि ‘‘यह दिन भी बीत जाएगा।’’ बड़ा ढाढस बन्धता था कि आपातकाल की अंधेरी सुरंग के उस छोर में रोशनी दिखेगी, शीघ्र।
लेकिन मधुरतम घटना थी जब तिहाड़ जेल के सत्रह नम्बर वार्ड में उस रात के अन्तिम पहर में पाकेट ट्रांसिस्टर पर वाॅयस आॅफ अमरीका के समाचार वाचक ने उद्घोषणा सुनी कि राय बरेली चुनाव क्षेत्र में कांग्रेसी उम्मीदवार के पोलिंग एजेन्ट ने निर्वाचन अधिकारी से मांग की कि मतगणना फिर से की जाय। मै तुरन्त उछल पड़ा। जार्ज फर्नाण्डिस को जगाया और बताया कि,‘‘इन्दिरा गांधी पराजित हो गई।’’ पूरे जेल मे बात फैल गई। तारीख 17, मार्च 1977 थी, लगा दीपावलि आठ माह पूर्व आ गई। सारे जेल में लाइट जल उठीं। विजय रागिनी बज उठी। आखिर मतदाताओं द्वारा तानाशाह धराशायी हो गया।
जनसत्ता: 26 जून 2010
K. Vikram Rao
President, Indian Federation of Working Journalists (I.F.W.J.)
k.vikramrao@gmail.com