तब नईनवेली प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को कांग्रेसी दिग्गज गूंगी गुड़िया समझते थें। हालांकि इस विषेषण को गढ़ा था लोहिया ने। चैथी लोकसभा के निर्वाचन की (फरवरी 1967) बेला थी। स्वातत्र्योत्तर भारत में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी ढलान पर थी। उसकी टूट आसन्न थी। पहले तीन आम मतदान के परिणाम में तीनचैथाई सीटंे जीतनेवाली नेहरू की पार्टी, उनके निधन के ढाई वर्षों में ही, साठ सीटें हार गई। सदन में सामान्य बहुमत से महज ग्यारह सदस्य अधिक थें। कम्युनिस्टों की बैसाखी की आवष्यकता पड़ गई थीं।
उस वक्त राष्ट्र की उत्सुक नजरें मुम्बई की चार लोकसभाई सीटों पर केन्द्रित थी। वैचारिक रूप से ऊँचे कदवाले, सियासी तौर पर दृढ काठीवाले इन नेताओं की प्रतिद्वन्द्विता भी उग्रतर हो रही थीं। नेहरू के रक्षामंत्री रहे निर्दलीय प्रत्याषी वी.के. कृष्ण मेनन का सामना महाराष्ट्र के कांग्रेसी मंत्री एस.जी. बर्वे से था। कम्युनिस्ट श्रीपाद अमृत डांगे की टक्कर उद्योगपति हरीष महिन्द्रा से थी। अपने दैनिक मराठा में आग उगलते सम्पादक रिपब्लिकन पार्टी के प्रहलाद अत्रे का मुकाबला दलित कांग्रेसी आर.डी. भण्डारे से था। इन सबसे ज्यादा दिलचस्प था दक्षिण मुम्बई मंे बेताज के बादषाह, नेहरू काबीना के वरिष्ठ मंत्री एस.के. पाटिल का नगर पार्षद और श्रमिक पुरोधा जार्ज फर्नांडिस से।
उसी चुनाव में सुदूर यू.पी. में बलरामपुर से अटल बिहारी बाजपेयी, फूलपुर से विजयलक्ष्मी पण्डित, गोण्डा से सुचेता कृपलानी और लखनऊ से न्यायमूर्ति आनन्द नारायण मुल्ला निर्दलीय प्रत्याषी थें। मगर देष मुंबई को निहार रहा था। उसमें भी दक्षिण मुंबई को जहां से महाबली पाटिल और वामनाकार जार्ज फर्नांडिस के बीच असमान मुकाबला था।
तीनों लोक सभाओं के चुनाव में अपार बहुमत से जीतनेवाले सदाषिव कान्होजी (सदोबा) पाटिल चैथी बार इसी क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याषी थे। इन्दिरा गांधी काबीना में वे दमदार मंत्री थे। बात दिसम्बर 1966 की है। दिन शनिवार का था। सदोबा पाटिल से मिलने हम संवाददाता प्रदेष कांग्रेस कार्यालय मंे खबर की खोज में गये। उन्होंने विदेष नीति से लेकर खाद्यनीति तक अपने पाण्डित्यपूर्ण विचार बेलौस व्यक्त किये हालांकि ये विषय उनके केन्द्रीय मंत्रालय से नहीं जुड़े थे। बयान तब भाषणनुमा हो रहा था। तभी मैंने उनसे पूछा कि लोकसभा के चुनाव की घोषणा चन्द हफ्तों में होने वाली है। आप क्या फिर दक्षिण मुम्बई से ही उम्मीदवारी करेंगे। कुछ अचंभे के साथ वे बोले – ”और कहां से फिर ?“ मैंने पूछा कि ”यूँ तो आप अजेय हैं, पर इस बार लोहियावादी जार्ज फर्नांडिस आपको टक्कर देनेवाले है।“ तनिक भौं सिकोड कर पाटिल बोले, ”कौन है यह फर्नांडिस ? वही म्युनिसिपल पार्षद ?“ मेरा अगला वाक्य था, ”आप तो महाबली है। आपको तो बस आपसे भी बड़ा महाबली ही हरा सकता है।“ कुछ मुदित मुद्रा में वे बोले, ”मुझे तो भगवान भी नही हरा सकते है।“ उस जमाने में रिपोर्टरों के पास टेप रिकार्डर नहीं होता था। अतः जैसे ही बयान पर विवाद उठा कि राजनेता साफ मुकर जाते थे और हम रिपोर्टरों की शामत आती थी। इसीलिये बाहर निकलकर मैने अपने संवाददाता साथियों से नोट्स मिलाये। तय हुआ कि हमसब की रपट का इन्ट्रो (प्रथम पैराग्राफ) होगा कि सादोबा पाटिल ने कहा कि ”भगवान भी उन्हें नही हरा सकता है।“ अगली सुबह मुम्बई के सभी दैनिकों में यही सुर्खी थी। जार्ज, जिनका पार्षद कार्यालय मेरे आफिस टाइम्स आॅफ इण्डिया भवन से लगा हुआ था, से मैं मिला और उन्हें हिन्दु भगवानों के अवतार के किस्से बतायें। फिर कहा कि वह वामनावतार ले और विरोचनपुत्र दैत्यराज महाबली बलि (पाटिल) से भिडे। जार्ज तब सैंतीस वर्ष के थे। श्रमिक पुरोधा थे। तय कर लिया सब साथियों ने पाटिल को टक्कर दी जाये। यह कहानी थी दिये की और तूफान की। अभियान सूत्र मात्र एक वाक्य था: ”पाटिल कहते है कि उन्हें भगवान भी नहीं हरा सकता है।“ फिर इसके बाद सात किष्तों मंे पोस्टर निकले। पहला था, ”क्या पाटिल को साक्षात परमेष्वर भी नहीं हरा सकते ?“ और अन्तिम पोस्टर था, ”अब मुकाबला पाटिल बनाम आमजन है।“ फिर मतदान के परिणाम आये। जार्ज को 48.5 प्रतिषत वोट मिले। परमषक्तिषाली महाबलवान अहंकारी अजेय एस.के. पाटिल चालीस हजार वोटों से हारे।
हालांकि पाटिल बनाम जार्ज वाले मतदान से कई निहितार्थ भी निकले हैं जिनका सीधा प्रभाव मुम्बई नगर के सियासी भूगोल पर पड़ा। मसलन कुछ कांग्रेसियों ने अभियान के दौरान स्थानीय और बाहरीवाला मुद्दा भी चलाया। इससे तमाम गैर-मराठी भाषियों को दर्द और संवेदना हुई जो आम तौर पर पाटिल के पारम्परिक समर्थक रहे। स्वयं पाटिल कभी भी संकीर्ण सोच के नहीं थें। जब उनके काबीना साथी यषवन्त राव चह्नाण और उनमें महाराष्ट्र राज्य के गठन पर चर्चा होती थी तो पाटिल सदैव मुम्बई को केन्द्र शासित प्रदेष बनाने के पक्षधर रहे। बल्कि उनके मराठीभाषी मित्र उनसे नाराज थे क्यांेकि वे कई बार 1960 में संयुक्त महाराष्ट्र आन्दोलन के वक्त मराठी में कह चुके थे कि ”यावत् चन्द्र दिवाकरों“ हैं मुम्बई महाराष्ट्र में विलीन नहीं होगा। पाटिल उदार और खुल दिमागवाले थे। मगर विजय-पराजय की बेला पर सारे समीकरण बिगड़ गये थें। धरतीपुत्र बाला नारा जो इस सोलहवीं लोकसभा निर्वाचन में फिर चला है, तब (1967) भी प्रचारित हुआ था। जार्ज की उम्मीवारी में कई अडंगे थे, तो कई अटकलें भी। वे कर्नाटक के मेंगलोर सागरतटीय क्षेत्र के कांेकणी भाषी हैं। मुंबई के फुटपाथ से एक मजदूर की तरह जीवन शुरू किया। मुंबई महापालिका के पार्षद बने। धारा प्रवाह मराठी बोलना सीखा।
अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय के थे मगर हिन्दु बहुल समाज के स्वीकार्य थे। संसाधन से निर्धन थे। पर इस कमी को उनकी श्रमिक संस्थाओं ने दूर कर दिया। जब जार्ज ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो मुंबई लेबर यूनियन के हजारों लोग अभियान में धन और तन से जुट गये। मन तो पूरा लगा दिया था। तब एक रिपोर्टर के नाते मैं देखता था कि वस्तुतः यह चुनावी संघर्ष जनबल बनाम धनबल था। उसी वक्त कन्नौज (उत्तर प्रदेष) से दुबारा संसदीय चुनाव लड़ रहे डा. राममनोहर लोहिया का बयान आया कि वे समान आचार संहिता के पक्षधर है। एक पत्नी व्यवस्था को कानून सभी भारतीयों पर कानूनन लागू कराने की मांग लोहिया ने किया था। उनकी प्रेस कान्प्रेंस में एक कांग्रेस समर्थक मौलाना ने यह प्रष्न किया था। उत्तर प्रदेष में तो लोहिया के इस बयान से उनकी पार्टी को घातक हानि हुई। बरेली से इलाहाबाद तक सोषलिस्ट उम्मीदवार हारे। स्वयं लोहिया केवल पांच सौ वोटों से बमुष्किल जीत पाये। उस वक्त मुंबई में भी जार्ज फर्नांडिस के मुसलमान वोट कट रहे थें। यूं भी पाटिल की कांग्रेस को मुसलमान समर्थन काफी था। दक्षिण मुंबई के बड़े हिस्से में मुसलमान काफी रहते है। बल्कि आजादी के पूर्व मोहम्मद अली जिन्ना का पाकिस्तान समर्थक आन्दोलन उसी इलाके से चलता था। जिन्ना का यह गढ़ रहा। ऐसे विपरीत परिस्थिति में भी जार्ज ने केवल अपनी उक्ति और तर्क से मुस्लिम महिलाओं को प्रभावित किया था कि निकाह के नियम की पुरूष तरफदारी करते है। अतः उन्हें परिमार्जित करना चाहिए।
इस यादगार चुनाव में मतदाताओं की एक खास मनोवृत्ति उजागर हुई। सम्पन्न शक्तिमान प्रत्याषी बनाम साधनहीन विपन्न का रूप लेकर इस चुनाव में जनसंवेदना की भी बड़ी भूमिका थी। गोस्वामीजी की पंक्ति याद आती थी कि ”रावण रथी, विरथ रघुवीरा।“ आजके चुनावी माहौल मंे भी यदि कोई नेक उम्मीदवार ऐसा लोकमानस को जागृत कर पाये तो कई क्षेत्रों के नतीजे पलट सकते हैं।
K. Vikram Rao
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